Friday 18 October 2013

सूक्त - 169

[ऋषि - शबर काक्षीवत । देवता - गौ । छन्द - त्रिष्टुप । ]

10470
मयोभूर्वातो अभि  वातूस्त्रा ऊर्जस्वतीरोषधीरा  रिशन्ताम् ।
पीवस्वतीर्जीवधन्या:  पिबन्त्ववसाय   पद्वते   रुद्र   मृळ ॥1॥

गो - माता है पूज्य हमारी वह बल- वर्धक औषधियॉं खाये ।
शुध्द- जल मिले गो-माता को वह हमसे अपना- पन पाये ॥1॥

10471
या: सरूपा विरूपा एकरूपा यासामग्निरिष्ट्या नामानि वेद ।
या अङ्गिरसस्तपसेह चक्रुस्ताभ्यःपर्जन्य महि शर्म यच्छ॥2॥

विविध रंग आकृति  है उनकी गो - माता की बडी है महिमा ।
हे पर्जन्य - देव विनती है गो - माता  की  बढ जाए गरिमा ॥2॥

10472
या  देवेषु  तन्व1मैरयन्त  यासां  सोमो  विश्वा  रूपाणि  वेद ।
ता असमभ्यं पयसा पिन्वमाना:प्रजावतीरिन्द्र गोष्ठे रिरीह ॥3॥

गो - माता  के  दधि  औ घृत बिन  यज्ञ  नहीं  हो सकता है ।
सुख-पूर्वक गो मॉं पोषित हों ऋग्वेद हमारा यह कहता है ॥3॥

10473
प्रजापतिर्मह्यमेता  रराणो   विश्वैर्देवैः  पितृभिः  संविदानः ।
शिवा: सतीरुप नो गोष्ठमाकस्तासां वयं  प्रजया सं सदेम ॥4॥

ब्रह्मा जी ने सम्पूर्ण जगत को दिया है यह उज्ज्वल उपहार ।
गो - माता को मिले सुरक्षा गो- माता बिन जग निस्सार ॥4॥ 

1 comment:

  1. गोमाता के रूप में भेजा,
    पोषण का देवत्व जगत में।

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