Sunday 24 November 2013

सूक्त - 112

[ऋषि- नभ प्रभेदन वैरूप । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10084
इन्द्र  पिब  प्रतिकामं  सुतस्य  प्रातः  सावस्तव  हि पूर्वपीतिः।
हर्षस्व   हन्तवे   शूर   शत्रूनुक्थेभिष्टे   वीर्या  3  प्र  ब्रवाम ॥1॥

तुम  ही  जगती  के  रक्षक  हो  षड्-रिपु  से रक्षा  करो हमारी ।
सोम-पान कर लो तुम प्रभु  परिमार्जित  है प्रेरणा तुम्हारी॥1॥

10085
यस्ते   रथो   मनसो   जवीयानेन्द्र   तेन   सोमपेयाय   याहि ।
तूयमा  ते  हरयः  प्र  द्रवन्तु  येभिर्यासि  वृषभिर्मन्दमानः॥2॥

मन  से  भी  अति  है  गति  तेरी  जग  की  रक्षा तुम करते हो ।
सब साधन सम्पन्न तुम्हीं हो हर जगह उपस्थित रहते हो॥2॥

10086
हरित्वता    वर्चसा    सूर्यस्य    श्रेष्ठै    रूपैस्तन्वं    स्पर्शयस्व ।
अस्माभिरिन्द्र सखिभिर्हुवानः सध्रीचीनो मादयस्वा निषद्य्॥3॥

तरनि - तेज  से  तन  मानुष  का  तुम  ही  तो  श्रेष्ठ  बनाते  हो ।
जीवन  में  आनन्द  घोल - कर  सुख - कर-मार्ग  बताते हो ॥3॥

10087
यस्य  त्यत्ते  महिमानं  मदेष्विमे  मही  रोदसी  नाविविक्ताम् ।
तदोक आ हरिभिरिन्द्र  युक्तैः प्रियेभिर्याहि  प्रियमन्नमच्छ॥4॥

तेरी गरिमा और महिमा  का  पृथ्वी  पर  भी  होता  गुण-गान ।
मन में तुम्हीं बसे हो प्रभुवर  ग्रहण  करो  अब  हविष्यान्न ॥4॥

10088
यस्य   शश्वत्पपिवॉं   इन्द्र   शत्रूननानुकृत्या   रण्या   चकर्थ ।
स ते पुरन्धिं तविषीमियर्ति स ते मदाय  सुत  इन्द्र  सोमः ॥5॥

अति- अद्भुत  बल  के  स्वामी  हो  दुष्टों  पर  करते  रहो  प्रहार । 
सज्जन प्रोत्साहित करते हैं सोम - पान  कर  लो  इस बार ॥5॥

10089
इदं    ते   पात्रं   सनवित्तमिन्द्र   पिबा    सोममेना    शतक्रतो ।
पूर्ण आहाओ मदिरस्य मध्वो यं विश्व इदभिहर्यन्ति  देवा: ॥6॥ 

हे  यज्ञ - कुण्ड  के  संचालक  हम  यह  अभिलाषा  करते  हैं ।
पुरातन  सोम - पात्र में ही प्रभु तुम्हें सोम  प्रेषित  करते हैं ॥6॥

10090
वि  हि  त्वामिन्द्र  पुरुधा  जनासो  हितप्रयसो  वृषभ  ह्वयन्ते ।
अस्माकं   ते   मधुमत्तमानीमा   भुवन्त्सवना   तेषु    हर्य ॥7॥

हवि - भोग  तुम्हें  अर्पित  करते  हैं  सोम हेतु करते आवाहन ।
मन से प्रभु स्वीकार करें अर्पित है तुम्हें  सोम- मन-भावन॥7॥

10091
प्र  त  इन्द्र  पूव्र्याणि  प्र  नूनं   वीर्या   वोचं   प्रथमा   कृतानि ।
सतीनमन्युरश्रथायो   अद्रिं   सुवेदनामकृणोर्ब्रह्मणे   गाम्  ॥8॥

हे  प्रभुवर  तुम  पराक्रमी  हो  सबका  ध्यान  तुम्हीं  रखते  हो ।
तेरी महिमा सबसे न्यारी तुम ही जल-दान सदा  करते  हो ॥8॥

10092
नि   षु   सीद   गणपते   गणेषु   त्वामाहुर्विप्रतमं   कवीनाम् ।
न  ऋते  त्वत्क्रियते  किंचनारे  महामर्कं  मघमञ्चित्रमर्च ॥9॥

बिन  जीवन  सब  सूना-सूना  पवन- देव  जग  के  पालक  हैं ।
देवों  के  देव  हैं  पवन- देव  पावन-पय-पावक के दायक हैं ॥9॥

10093
अभिख्या नो मघवन्नाधमानान्त्सखे बोधि वसुपते सखीनाम् ।
रणं कृधि रणकृत्सत्यशुष्माभक्ते चिदा भजा राये अस्मान्॥10॥

हे  परम-मित्र  हे  अग्नि - देव  वैभव -विज्ञान के हम याचक हैं ।
ज्ञान - बोध  हो  जाए  प्रभु - वर हम तो तेरे ही उपासक हैं ॥10॥   

2 comments:

  1. श्लोकों का सुन्दर अनुवाद...दोहों के रूप में...

    ReplyDelete
  2. यहाँ सोमपान से ही अभीष्ट अर्थ बोध हो रहा है -हम सोम ही लिखें उसे कोई अन्य नाम न दें यही उचित लगता है

    ReplyDelete