Saturday 16 November 2013

सूक्त - 120

[ऋषि- बृहद्दिव आथर्वण । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10163
तदिदास    भुवनेषु    ज्येष्ठं    यतो   जज्ञ   उग्रस्त्वेष्नृम्णः ।
सद्यो  जज्ञानो  नि  रिणाति  शत्रूननु यं विश्वे मदन्त्यूमा: ॥1॥

समस्त भुवन में देशकाल में बल में तेज में प्रभु तुम ही हो ।
अज्ञान-तमस को मित्र मिटाता जग प्रेरक-बल भी तुम हो॥1॥

10164
वावृधानः   शवसा   भूर्योजा:   शत्रुर्दासाय   भियसं   दधाति ।
अव्यनच्च  व्यनच्च  सस्नि  सं  ते  नवन्त  प्रभृता मदेषु ॥2॥

मित्र  मेघ  पर  भारी  पडता  चर-अचर  जीव का संचालक है ।
रवि  प्रभूत  बल  का स्वामी हैं वह ही तो आनंद-दायक है ॥2॥

10165
त्वे    क्रतुमपि    वृञ्जन्ति    विश्वे    द्विर्यदेते    त्रिर्भवन्त्यूमा: ।
स्वादोः स्वादीयः स्वादुना सृजा समदः सु मधु मधुनाभि योधी:॥3॥

हम  अनुष्ठान  करते  हैं  प्रभु-वर  सत्कर्मों  का  पाठ- पढाना ।
सदा स्वस्थ हों सदा निरोगी धन-संतति को सतत बढाना ॥3॥

10166
इति  चिध्दि  त्वा  धना  जयन्तं  मदेमदे  अनुमदन्ति  विप्रा: ।
ओजीयो धृष्णो स्थिरमा तनुष्व मा त्वा दभन्यातुधाना दुरेवा:॥4॥

तुम   धन - वैभव   के  स्वामी   हो   प्रभु  तेजस्वी  हमें   बनाना ।
निर्भय  होकर  जियें जगत में सन्मार्ग हमें अब तुम्हीं बताना ॥4॥

10167
त्वया   वयं   शाशद्महे   रणेषु   प्रपश्यन्तो   युधेन्यानि   भूरि ।
चोदयामि त आयुधा वचोभिः सं ते शिशामि ब्रह्मणा वयांसि॥5॥

तेरी  दया  से  जीत  मिली  है  दुश्मन  मेरा  हुआ  है  निर्बल ।
सद्-विचार  में  बल  है  भगवन  तुम  ही  तो हो मेरा संबल ॥5॥ 

10168
स्तुषेय्यं                पुरुवर्पसमृभ्वमिनतममाप्त्यमाप्त्यानाम् ।
आ दर्षते  शवसा  सप्त  दानून्प्र  साक्षते  प्रतिमानानि  भूरि ॥6॥

सब  रूपाकार  में  तुम  ही  तुम हो सतत नमन हम करते हैं ।
सदा   सुरक्षा   देना   भगवन   तेरी  गरिमा  गाते  रहते  हैं ॥6॥

10169
नि   तद्दधिषेSवरं   परं   च   यस्मिन्नाविथावसा   दुरोणे ।
आ  मातरा  स्थापयसे  जिगत्नू  अत इनोषि कर्वरा पुरूणि ॥7॥

हम   हविष्यान्न  देते  हैं  प्रभु  तुम  धन - धान  हमें  देना ।
तुम  हो  सम्पूर्ण  विश्व के स्वामी जग - रक्षा - स्वयं लेना ॥7॥

10170
इमा   ब्रह्म   बृहद्दिवो   विवक्तीन्द्राय   शूषमग्रियः   स्वर्षा: ।
महो गोत्रस्य क्षयति स्वराजो दुरश्च विश्वा अवृणोदप स्वा:॥8॥

अमित ज्ञान आलोक-प्रभा के लिए स्वयं हम हों आनन्दित ।
वह हम सबको सहज-सुलभ है वेद-ऋचायें करें निनादित ॥8॥

10171
एवा     महान्बृहद्दिवो     अथर्वावोचत्स्वां     तन्व1मिन्द्रमेव ।
स्वसारो मातरिभ्वरीररिप्रा हिन्वन्ति च शवसा वर्धयन्ति च॥9॥

ज्ञानी   प्रभु   से   बातें   करता   है  होते  हैं  अनगिन  सम्वाद ।
परा - पकृति  आमोद  बढाती  करती  रहती  सतत  निनाद ॥9॥   
 
  

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