Tuesday 14 January 2014

सूक्त - 61

[ऋषि- नाभानेदिष्ठ मानव । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9406
इदमित्था   रौद्रं   गूर्तवचा   ब्रह्म   क्रत्वा   शच्यामन्तराजौ ।
क्राणा यदस्य पितरा मंहनेष्ठा:पर्षत्पक्थे अहन्ना सप्त होतृन्॥1॥

वेद - ऋचाओं  का  अभ्यासी  वेद - ज्ञान  का मर्म समझता ।
कर्म और वाणी में धर-कर मातु-पिता सम निज को गढता ॥1॥

9407
स  इद्दानाय  दभ्याय  वन्वञ्च्यवानः  सूदैरमिमीत  वेदिम् ।
तूर्ययाणो  गूर्तवचस्तमः  क्षोदो  न  रेत इतऊति सिञ्चत्॥2॥

वेद - पुरुष  ज्ञानी  होता  है  वह  करता  है  प्रतिदिन  दान ।
धरा  बन गई यज्ञ-वेदिका हवि भोग मिले सबको समान॥2॥

9408
मनो  न  येषु  हवनेषु  तिग्मं  विप्रः  शच्या  वनुथो  द्रवन्ता ।
आ  यः शर्याभिस्तुविनृम्णो अस्याश्रीणीतादिशं गभस्तौ॥3॥

मन  की  गति  से  देव  पधारे  सूर्य - सोम  पाते  हवि- भाग ।
हवि-भोग सभी को मिलता है और मिलता है राग-विराग॥3॥

9409
कृष्णा   यद्गोष्वरुणीषु   सीदद्दियो   नपाताश्विना   हुवे   वाम् ।
वीतं  मे  यज्ञमा  गतं  मे  अन्नं  ववन्वांसा नेषमस्मृतध्रू ॥4॥

ऊषा - काल  में   हम   करते   हैं   अपने   देवों  का  आवाहन ।
प्रभु  इच्छा  से  प्रेरित  होकर  अर्पित करते हैं हविष्यान्न ॥4॥

9410
प्रथिष्ट   यस्य   वीरकर्ममिष्णदनुष्ठितं   नु   नर्यो   अपौहत् ।
पुनस्तदा   वृहति   यत्कनाया   दुहितरा   अनुभृतमनर्वा ॥5॥

देवताओं  में  दिव्य - शक्ति  है  प्रभु  तुम  देना  दिव्य - ज्ञान ।
कहीं भटक न जाऊँ भगवन सखी मिल जाए ऊषा समान॥5॥

9411
मध्या यत्कर्त्वमभवदभीके कामं कृण्वाने पितरि युवत्याम् ।
मनानग्रेतो जहतुर्वियन्ता सानौ निषिक्तं सुकृतस्य योनौ॥6॥

आदित्य-देव आलोक - प्रदाता रवि-किरणों का लेकर वितान।
अरुणाभा आई आज अवनि पर कोयल करती मधुमय-गान॥6॥

9412
पिता यस्त्वां दुहितरमधिष्कन्क्ष्मया रेतःसञ्जग्मानो नि सिञ्चत्।
स्वाध्योSजनयन्ब्रह्म  देवा  वास्तोष्पतिं  व्रतपां  निरतक्षन् ॥7॥

सूरज  के  प्रकाश  को  अब  हम विविध - विधा में करते भोग ।
सौर-शक्ति अब अति जनप्रिय है इसके हैं अतिशय उपयोग॥7॥

9413
स   ईं  वृषा  न  फेनमस्यदाजौ  स्मदा   परैदप   दभ्रचेता: ।
सरत्पदा न दक्षिणा परावृङ् न ता नु मे पृशन्यो  जगृभ्रे ॥8॥

यह  जीवन  भी  यज्ञ - रूप है त्याग-सहित ही हो उपभोग ।
दान  बहुत  ही  आवश्यक  है  खतरनाक है केवल भोग ॥8॥

9414
मक्षू  न  वह्नि: प्रजाया  उपब्दिरग्निं  न  नग्न  उप सीददूधः।
सनितेध्मं  सनितोत  वाजं स धर्ता जज्ञे सहसा यवीयुत्॥9॥

जलती आग  डरा  देती  है  पर  जब  विधिवत उपयोग करें ।
तब जीवन-रक्षक बन जाता है अनियंत्रित-बल से सदा डरें॥9॥

9415
मक्षू कनाया: सख्यं नवग्वा ऋतं वदन्त ऋतयुक्तिमग्मन् ।
द्विबर्हसो य उप गोपमागुरदक्षिणासो अच्युता दुदुक्षन् ॥10॥

अग्निदेव की अद्भुत गति है भिन्न-भिन्न हैं उसके रूप ।
प्राण-वायु से छटा निखरती अग्नि-देव हैं जग के भूप ॥10॥

9416
मक्षू कनाया: सख्यं नवीयो राधो न रेत ऋतमित्तुरण्यन् ।
शुचि यत्ते रेक्ण आयजन्त सबर्दुघाया: पय उस्त्रियाया:॥11॥

अग्नि देव  देते  धन-दौलत अग्नि-देव  पावस  लाते  हैं ।
सलिल-सुधा वे  ही  देते  हैं झर-झर पानी  बरसाते  हैं ॥11॥

9417
पश्वा  यत्पश्चा  वियुता  बुधन्तेति  ब्रवीति  वक्तरी रराणः ।
वसोर्वसुत्वा  कारवोSनेहा  विश्वं विवेष्टि  द्रविणमुप क्षु॥12॥

पशुधन भी अति आवश्यक है बिन पशु-धन ऑगन सूना है।
जिस  घर में गौ रँभाती है उस घर का सुख भी दूना है ॥12॥

9418
तदिन्न्वस्य परिषद्वानो अग्मन्पुरु सदन्तो नार्षदं बिभित्सन्।
वि शुष्णस्य संग्रथितमनर्वा विदत्पुरुप्रजातस्य गुहा यत्॥13॥

मानुष-तन में प्राण बली है पर अति-विचित्र आत्मा की आख्या।
ब्रह्म-स्वरूपा है यह आत्मा अति अद्भुत है इसकी व्याख्या ॥13॥

9419
भर्गो  ह  नामोत  यस्य  देवा: स्व1र्ण  ये  त्रिषधस्थे  निषेदुः ।
अग्निर्ह नामोत जातवेदा: श्रुधी नो होतरृतस्य होताध्रुक् ॥14॥

अग्नि - देव  के  कई  नाम  हैं  जल  थल  नभ  है इसका गेह ।
पावक  अनल  जातवेदस  है हर रूप में देते सबको स्नेह ॥14॥

9420
उत  त्या  मे  रौद्रावर्चिमन्ता  नासत्याविन्द्र  गूर्तये  यजध्यै ।
मनुष्वद्वृक्तबहिर्षे  रराणा  मन्दू  हितप्रयसा  विक्षु  यज्यू ॥15॥

हे  अश्विनीकुमार  प्रभु  आओ  हम  प्रेम  से  तुम्हें  बुलाते  हैं ।
बडे  यशस्वी  हो  तुम  दोनों  तुमको  पाकर हम हर्षाते हैं॥15॥

9421
अयं  स्तुतो  राजा  वन्दि  वेधा  अपश्च  विप्रस्तरति  स्वसेतुः ।
स  कक्षीवन्तं  रेजयत्सो अग्निं नेमिं न चक्रमर्वतो  रघुद्रु॥16॥

यह  समीर  है  सबका  साधक  नभ - धरती के मध्य सेतु-सम।        
मेघों  को  उद्वेलित  करता है जल-वर्षा का करता उपक्रम ॥16॥

9422
स     द्विबन्धुर्वैतरणो     यष्टा    सबर्धुं    धेनुमस्वं    दुहध्यै ।
सं   यन्मित्रावरुणा   वृञ्ज  उक्थैर्ज्येष्ठेभिरर्यमणं  वरूथैः ॥17॥
 
अग्नि - देव  आकाश  अवनि  में  समान  भाव  से  ही रहते हैं ।
अपने मुख के माध्यम से सबको हवि-भाग दिया करते हैं॥17॥

9423
तद्बन्धुः  सूरिर्दिवि  ते  धियंधा  नाभानेदिष्ठो रपति प्र वेनन् ।
सा नो नाभिः परमास्य वा घाहं तत्पश्चा कतिथश्चिदास॥18॥

आदित्य - देव  अति  अद्भुत  हैं  यह  सौर-शक्ति हितकारी है ।
हम सब सौर-ऊर्जा अपनायें आज भी अन्वेषण जारी है ॥18॥

9424
इयं  मे  नाभिरिह  मे  सधस्थमिमे  मे  देवा अयमस्मि सर्वः ।
द्विजा  अह   प्रथमजा  ऋतस्येदं  दधेनुरदुहज्जायमाना ॥19॥

परमेश्वर  ही  पिता  हमारे  वह  ही  मेरा  चिर - परिचित  है ।
वाक्-वैभव भी दिया है उसने उसका प्यार अपरिमित  है॥19॥

9425
अधासु   मन्द्रो   अरतिर्विभावाव   स्यति   द्विवर्तनिर्वनेषाट् ।
ऊर्ध्वा  यच्छ्रेणिर्न  शिशूर्दन्मक्षू  स्थिरं शेवृधं सूत माता ॥20॥

अग्नि  देव  अति  आनंदित  हैं  कहीं  भी  जाकर  रह  लेते  हैं ।
पावक  पावन  पूजनीय  हैं  वे  हम  सबको  सुख देते हैं ॥॥20॥

9426
अधा  गाव  उपमातिं  कनाया अनु श्वान्तस्य कस्य चित्परेयुः ।
श्रुधि त्वं सुद्रविणो नस्त्वं याळाश्वघ्नस्य वावृधे सूनृताभिः॥21॥

मंत्रोच्चारण  से  बल  बढता  वाणी  ओजस्वी  हो  जाती  है ।
हे अग्नि-देव तुम ही प्रणम्य हो दुनियॉ तुमसे ऊर्जा पाती है॥21॥

9427
अध  त्वमिन्द्र  विध्दय1  स्मान्महो  राये  नृपते  वज्रबाहुः ।
रक्षा च नो मघोनः पाहि सूरीननेहसस्ते हरिवो अभिष्टौ ॥22॥

हे  परमेश्वर  हे  बलशाली  तुम  हमको  यश - वैभव  देना ।
सदा  हमारी  रक्षा  करना  तुम  सबकी  पीडा  हर लेना ॥22॥

9428
अध   यद्राजाना   गविष्टौ   सरत्सरण्युः   कारवे   जरण्युः ।
विप्रः  प्रेष्ठः  स  ह्येषां  बभूव  परा  च  वक्षदुत पर्षदेनान् ॥23॥

प्रभु  पावन  पथ  पर  पहुँचायें  निज दायित्व निभाना जानें ।
हम अपनी प्रतिभा पहचानें सम्पूर्ण जगत को अपना मानें॥23॥

9429
अधा  न्यस्व  जेन्यस्य  पुष्टौ  वृथा  रेभन्त  ईमहे  तदू  नु ।
सरण्युरस्य   सूनुरश्वो   विप्रश्चासि    श्रवसश्च   सातौ ॥24॥

हे  वरुण  देव  तुम  ही  वरेण्य  हो मनोकामना पूरी करना ।
तुम हो सुख-स्वरूप हे प्रभुवर हमें अन्न-धन देते रहना॥24॥

9430
युवोर्यदि  सख्यायास्मे  शर्धाय  स्तोमं  जुजुषे  नमस्वान् ।
विश्वत्र यस्मिन्ना गिरः समीचीः पूर्वीव गातुर्दाशत्सूनृतायै॥25॥

मित्र - वरुण  की  सुन्दर  जोडी  परस्पर  पूरक  लगते  हैं ।
परिचित पथ पावन हो जैसे वैसे ही सुखकर लगते हैं ॥25॥

9431
स   गृणानो   अद्भिर्देववानिति   सुबन्धुर्नमसा   सूक्तैः ।
वर्धदुक्थैर्वचोभिरा हि नूनं व्यध्वैति पयस उस्त्रियाया:॥26॥

पानी  प्राणी  की  प्यास  बुझाता  सबको  शीतल करता है ।
वैसे  ही  पृथ्वी  पर  पानी  पावन  पद  गाते  बहता है ॥26॥

9432
त  ऊ  षु  णो  महो  यजत्रा  भूत  देवास  ऊतये  सजोषा: ।
ये वाजॉ अनयता वियन्तो ये स्था निचेतारो अमूरा:॥27॥
 
संघ -शक्ति में अद्भुत बल है विद्वद्जन का हो निज वितान ।
सभी सुरक्षित रहें धरा पर उदित हो रहा नवा- बिहान॥27॥                                


 

 

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर सरल अनुवाद प्रस्तुति के लिए धन्यवाद ..

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  2. क्लिष्ट श्लोकों का सुंदर दोहाकरण...

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  3. सृष्टि चक्र, सब जन आनन्दित।

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