Sunday 23 February 2014

सूक्त - 21

[ऋषि- विमद ऐन्द्र । देवता- अग्नि । छन्द- आस्तार पंक्ति ।]

8993
आग्निं न स्ववृक्तिभिर्होतारं त्वा वृणीमहे ।
यज्ञाय स्तीर्णबर्हिषे वि वो मदे शीरं पावकशोचिषं विवक्षसे॥1॥

वेद-ऋचा के सुरभित सुर सँग अग्नि-देव का आवाहन है ।
जगती के कल्याण के लिए यज्ञ - देव  का अनुष्ठान है॥1॥

8994
त्वामु ते स्वाभुवः शुम्भन्त्यश्वराधसः ।
वेति त्वामुपसेचनी वि वो मद ऋजीतिरग्न आहुतिर्विवक्षसे॥2॥

इस  दुनियॉ  की  रीत  यही  है  जो  देता है वह ही पाता है ।
अग्नि-देव हवि-भोग बॉटते यह प्रसाद सबको भाता है॥2॥

8995
त्वे धर्माण आसते जुहूभिः सिञ्चतीरिव ।
कृष्णा रूपाण्यर्जुना वि वो मदे विश्वा अधि श्रियो धिषे विवक्षसे॥3॥

पावस-पय  पृथ्वी  पर  पडता रिमझिम प्यारी यह बरसात ।
अन्न फूल फल सबको मिलता खिल उठता है पात-पात॥3॥

8996
यमग्ने मन्यसे रयिं सहसावन्नमर्त्य ।
तमा नो वाजसातये वि वो मदे यज्ञेषु चित्रमा भरा विवक्षसे॥4॥

हे  अग्न - देव  उत्तम  धन  देना  यश - वैभव  का  देना दान ।
सभी  सुखी  हों सभी निरोगी मन से  मिटे सकल अज्ञान॥4॥

8997
अग्निर्जातो अथर्वणा विदद्विश्वानि काव्या ।
भुवद्दूतो विवस्वतो वि वो मदे प्रियो यमस्य काम्यो विवक्षसे॥5॥

अग्नि - देव  आनन्द - प्रदाता  हम  सबका  करना  कल्याण ।
सत्पथ पर हम चलें निरन्तर जब तक है इस तन में प्राण॥5॥

8998
त्वां यज्ञेष्वीळतेSग्ने प्रयत्यध्वरे ।
त्वं वसूनि काम्या वि वो मदे विश्वा दधासि दाशुषे विवक्षसे॥6॥

हे  अग्नि -  देव  तुम  जाओ  हम  प्रेम  से  तुम्हें  बुलाते  हैं ।
हवि-भोग तुम्हें अर्पित करते हैं सस्वर वेद-ऋचा गाते हैं॥6॥

8999
त्वां यज्ञेष्वृत्विजं चारुमग्ने नि षेदिरे ।
घृतप्रतीकं मनुषो वि वो मदे शुक्रं चेतिष्ठमक्षभिर्विवक्षसे॥7॥

सभी  तुम्हें आमंत्रित  करते  तुम  ही  सबको  सुख  देते हो ।
सबका कल्याण तुम्हीं करते अपनेपन से अपना लेते हो॥7॥

9000
अग्ने शुक्रेण शोचिषोरु प्रथयसे बृहत् ।
अभिक्रन्दन्वृषायसे वि वो मदे गर्भं दधासि जामिषु विवक्षसे॥8॥

सुख - कारी औषधि  देते  हो  सबको  देते  हो  धन - धान ।
सभी तुम्हारी महिमा गाते हे अग्नि-देव तुम हो महान ॥8॥   
    

3 comments:

  1. इस दुनियॉ की रीत यही है जो देता है वह ही पाता है ।
    अग्नि-देव हवि-भोग बॉटते यह प्रसाद सबको भाता है॥2॥
    ...बिल्कुल सच...बहुत सहज, बोधगम्य और प्रभावी अनुवाद...

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  2. अग्नि - देव आनन्द - प्रदाता हम सबका करना कल्याण ।
    सत्पथ पर हम चलें निरन्तर जब तक है इस तन में प्राण॥5॥

    सत्यमेव जयते...

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  3. सुन्दर भावानुवाद, वेद बाँचता।

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