Tuesday 18 March 2014

सूक्त - 110

[ऋषि- त्र्यरुण त्रसदस्यु । देवता- पवमान सोम । छन्द- अनुष्टुप् - बृहती ।]

8765
पर्यू षु प्र धन्व वाजसातये परि वृत्राणि सक्षणिः ।
द्विषस्तरध्या ऋणया न ईयसे ॥1॥

ब्रह्म  परायण  नर  ही  सचमुच  परमेश्वर  को  पाता  है ।
वही वीर फिर दुष्ट-दलन कर देश को सबल बनाता है॥1॥

8766
अनु हि त्वा सुतं सोम मदामसि महे समर्यराज्ये ।
वाजॉ अभि पवमान प्र गाहसे ॥2॥

सर्व  समर्थ  वही  सत्ता  है  वह  ही  यश- वैभव  की  खान ।
कर्मानुरूप सुख- दुख मिलता है चिंतन से होता है भान॥2॥

8767
अजीजनो हि पवमान सूर्यं विधारे शक्मना पयः ।
गोजीरया रंहमाणः पुरन्ध्या ॥3॥

वह  दामिनी  प्रभा  का  दाता  बिना  श्रेय  के  सब  देता  है ।
गति-यति दोनों में माहिर है अपने-पन से अपना लेता है॥3॥

8768
अजीजनो अमृत मर्त्येष्वॉ ऋतस्य धर्मन्नमृतस्य चारुणः ।
सदासरो वाजमच्छा सनिष्यदत् ॥4॥

जन - जन उसके  लिए  बराबर  दृष्टि  सभी  पर  रहती  है ।
दया-दृष्टि हम पर भी रखना मन-मैना तुझ में रमती है ॥4॥

8769
अभ्यभि हि श्रवसा ततर्दिथोत्सं न कं चिज्जनपानमक्षितम्।
शर्याभिर्न भरमाणो गभस्त्योः ॥5॥

रवि की किरणें सब विकार को बिना-विलम्ब मिटा देती हैं ।
ऐसे ही सज्जन की भूलों को देव- शक्तियॉ  हर  लेती  हैं ॥5॥

8770
आदीं के चित्पश्यमानास आप्यं वसुरुचो दिव्या अभ्यनूषत् ।
वारं न देवः सविता व्यूर्णुते ॥6॥

रवि-किरणें हर जगह पहुँचतीं ज्ञानी कण-कण में प्रभु पाता है।
घट-घट में प्रभु दर्शन करके वह आनन्द से  भर  जाता  है ॥6॥

8771
त्वे सोम प्रथमा वृक्तबर्हिषो महे वाजाय श्रवसे धियं दधुः ।
स त्वं वीर वीर्याय चोदय ॥7॥

हे प्रभु हम सत्पथ पर चल-कर बन जायें धीर-वीर -उत्साही ।
तुम वरद-हस्त हम  पर  रखना  हम  हैं  चरैवेति के राही ॥7॥

8772
दिवः पीयूषं पूर्व्यं यदुक्थ्यं महो गाहाद्दिव आ निरधुक्षत ।
इन्द्रमभि जायमानं समस्वरन् ॥8॥

परमात्मा अमृत - स्वरूप है यह  जगती  है  उसका  रूप ।
सर्व-व्याप्त है वह परमेश्वर वह है अनन्त अद्भुत अनूप॥8॥

8773
अध यदिमे पवमान रोदसी इमा च विश्वा भुवनाभि मज्मना।
यूथे न निःष्ठा वृषभो वि तिष्ठसे ॥9॥

हम  सबको  अपना  बल  देकर  उसने  हमें  समर्थ  बनाया ।
फिर भी स्वाधीन रखा है उसने यह है बस उसकी ही माया ॥9॥

8774
सोमः  पुनानो  अव्यये  वारे  शिशुर्न  क्रीळन्पवमानो  अक्षा:  ।
सहस्त्रधारः शतवाज इन्दुः ॥10॥ 

वह अनन्त बल का स्वामी  है  सब  सद्गुण  का  वही  निधान ।
विविध - अनन्त  रूप  हैं  उसके  ऐसा है अपना भगवान ॥10॥

8775
एष   पुनानो   मधुमॉ   ऋतावेन्द्रायेन्दुः   पवते   स्वादुरूर्मिः । 
वाजसनिर्वरिवोविद्वयोधा: ॥11॥

जो  ज्ञान - कर्म  से  आगे  बढते  उनको  प्रभु  मिल  जाते  हैं ।
तब सबका प्यार उन्हें मिलता वे अनुपम आनन्द पाते हैं॥11॥

8776
स    पवस्व    सहमानः   पृतन्यून्त्सेधन्रक्षांस्यप    दुर्गहाणि ।  
स्वायुधः सासह्वान्त्सोम शत्रून् ॥12॥

जननी - जन्मभूमि रक्षित हो अतुलित आयुध का अन्वेषण हो ।
देश- भूमि यह  रहे सुरक्षित हर हाल में इसका संरक्षण हो ॥12॥  
    

5 comments:

  1. सारगर्भित दोहे...

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  2. देश- भूमि यह रहे सुरक्षित हर हाल में इसका संरक्षण हो

    मंगलकामनाएं आपको !!

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  3. देव शक्तियाँ सदा हमारा पथ प्रशस्त करें..

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  4. प्रभुप्रेरित है सृष्टिचक्र यह।

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  5. उस परमात्मा के चारो और घूमती है सारी श्रृष्टि....

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