Tuesday 22 April 2014

सूक्त - 74

[ऋषि- कक्षीवान् दीर्घतमस । देवता- पवमान सोम । छन्द-जगती-त्रिष्टुप् ।]

8358
शिशुर्न  जातोSव  चक्रदद्वने  स्व1र्यद्वाज्यरुषः  सिषासति ।
दिवो रेतसा सचते पयोवृधा तमीमहे सुमती शर्म सप्रथः॥1॥

जब  साधक  शिशु  के  समान  परमेश्वर  के आगे  रोता  है ।
तब परमात्मा तुरत पहुँचता मानो मिला कोई न्यौता है॥1॥

8359
दिवो यः स्कम्भो धरुणः स्वातत आपूर्णो अंशुः पर्येति विश्वतः।
सेमे मही रोदसी यक्षदावृता समीचीने दाधार समिषःकविः॥2॥

सर्वत्र  व्याप्त  है  वह  परमेश्वर  वह  ही  तो  सबका आश्रय  है ।
वह सबको यश-वैभव देता वह सज्जन को सहज प्राप्य है॥2॥

8360
महि  प्सरः  सुकृतं  सोम्यं  मधूर्वी  गव्यूतिरदितेरृतं  यते ।
ईशे यो वृष्टेरित उस्त्रियो वृषाणां नेता य इतऊतिरृग्मियः॥3॥

वह  परमेश्वर  ही  प्रणम्य  है  वह  ही  है  आलोक - प्रदाता ।
वह  ही  हमें  सुरक्षा  देता  वह  कर्मानुरूप  फल - दाता ॥3॥

8361
आत्मन्वन्नभो दुह्यते घृतं पय ऋतस्य नाभिरमृतं वि जायते ।
समीचीना:सुदानवःप्रीणन्ति तं नरो हितमव मेहन्ति पेरवः॥4॥

जो  प्रभु  उपासना  करते  हैं  जो  नीति -  नेम  से  चलते  हैं ।
वे विविध-विधा से सुख पाते परमेश्वर प्रेम बहुत करते  हैं॥4॥

8362
अरावीदंशुः सचमान ऊर्मिणा देवाव्यं1 मनुषे पिन्वति त्वचम् ।
दधाति गर्भमदिते रुपस्थ आ येन तोकं च तनयं च धामहे॥5॥

परमेश्वर  आनन्द -  लहर  है   हम  सबको   देता   हैं  उपदेश । 
देव - भाव  मन  में  भरता  है  देता  है  सुख - मय परिवेश ॥5॥

8363
सहस्त्रधारेSव  ता  असश्चतस्तृतीये  सन्तु  रजसि  प्रजावतीः ।
चतस्त्रो नाभो निहिता अवो दिवो हविर्भरन्त्यमृतं घृतश्चुतः॥6॥

वह अनन्त वैभव का स्वामी  सबको  सुख - सम्पन्न  बनाता ।
साधक  तेजस्वी  बनता  है  कर्म-परायण  खुद  बन जाता ॥6॥

8364
श्वेतं रूपं कृणुते यत्सिषासति सोमो मीढ्वॉ असुरो वेद भूमनः ।
धिया शमी सचते सेमभि प्रवद्दिवस्कवन्धमव दर्षदुद्रिणम्॥7॥

दुष्ट - दलन  वह  ही  करता  है  सज्जन  का करता प्रति-पाल ।
दुष्ट  सज़ा  खुद  पा लेता है किञ्चित - कर्मों का है क़माल ॥7॥

8365
अध  श्वेतं  कलशं  गोभिरक्तं कार्ष्मन्ना वाज्यक्रमीत्ससवान् ।
आ हिन्विरे मनसा देवयन्तः कक्षीवते शतहिमाय गोनाम्॥8॥

साधक  सभी  सत् - गुणी  होते  पाते  हैं  प्रभु  का सान्निध्य ।
प्रभु  ही  प्रेरित  करते  रहते  देते  रहते  अपना  सामीप्य ॥8॥

8366
अद्भिः सोम पपृचानस्य ते रसोSव्यो वारं वि पवमान धावति ।
स मृज्यमानः कविभिर्मदिन्तम स्वदस्वेन्द्राय पवमान पीतये॥9॥

कर्म - योग  की  महिमा  अद्भुत  साधक  हो  जाता  वरणीय ।
प्रभु  ही  तृप्ति  उन्हें  देते  हैं  नटवर  नागर  हैं  नमनीय  ॥9॥

1 comment:

  1. साधक और साध्य का रिश्ता ऐसा ही है...

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