Thursday 17 April 2014

सूक्त - 80

[ऋषि- वसु भारद्वाज । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]

8392
सोमस्य  धारा  पवते  नृचक्षस  ऋतेन  देवान्हवते  दिवस्परि ।
बृहस्पते रवथेना वि दिद्युते समुद्रासो न सवनानि विव्यचुः॥1॥

शब्द - ब्रह्म  को  पहले  जानो  प्रभु - वैभव  का  हो  विस्तार ।
प्रभु - उपासना  जो  करते  हैं  उनका  बेडा  हो  जाता  पार॥1॥

8393
यं त्वा वाजिन्नघ्न्या अभ्यनूषतायोहतं योनिमा रोहसि द्युमान् ।
मघोनामायुः प्रतिरन्महि श्रव इन्द्राय सोम पवसे वृषा मदः ॥2॥

साधक  को  दीर्घ  आयु  मिलती  है उद्योगी  को  मिलता है बल ।
वह अनन्त है  शक्ति  विभूषित  सज्जन  पाते  हैं  शुभ-फल ॥2॥

8394
एन्द्रस्य  कुक्षा  पवते  मदिन्तम ऊर्जं वसानः श्रवसे सुमङ्गलः ।
प्रत्यङ् स विश्वा भुवनानि पप्रथे क्रीळन्हरिरत्यःस्यन्दते वृषा॥3॥

आनन्द - रूप  है  वह  परमात्मा आनन्द  की  वर्षा  करता  है ।
कण - कण  में  है  वास उसी का दोषों  को  वह ही हरता है ॥3॥

8395
तं  त्वा  देवेभ्यो  मधुमत्तमं  नरः सहस्त्रधारं  दुहते  दश  क्षिपः ।
नृभिःसोम प्रच्युतो ग्रावभिःसुतो विश्वॉदेवॉ आ पवस्वा सहस्त्रजित्॥4॥

परमेश्वर  आनन्द -  प्रदाता  निज  साधक  को  देते  आनन्द ।
दुष्ट - दलन  वे  ही  करते  हैं  साधक  पाता  है  परमानन्द ॥4॥

8396
तं त्वा हस्तिनो मधुमन्तमद्रिभिर्दुहन्त्यप्सु वृषभं दश क्षिपः ।
इन्द्रं सोम मादयन्दैव्यं जनं सिन्धोरिवोर्मिःपवमानो अर्षसि॥5॥

सबका अभीष्ट  पूरा  होता  है  बन्धन - मुक्त  मनुज जीता  है ।
जो ज्ञान-कर्म की राह पकडता आनन्द का अमृत पीता है॥5॥

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