Tuesday 1 April 2014

सूक्त - 96

[ऋषि- प्रतर्दन दैवोदासि । देवता- पवमान सोम । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

8534
प्र   सेनानीः  शूरो  अग्रे   रथानां   गव्यन्नेति   हर्षते  अस्य   सेना ।
भद्रान्कृण्वन्निन्द्रहवान्त्सखिभ्य आ सोमो वस्त्रा रभसानि दत्ते॥1॥

कर्म-योग  का  पथिक  हमेशा  पर-उपकार  किया  करता  है ।
अत्यन्त आधुनिक आयुध अपनी सेनायें समर्थ रखता है॥1॥

8535
समस्य     हरिं    हरयो    मृजन्त्यश्वहयैरनिशितं    नमोभिः ।
आ तिष्ठति रथमिन्द्रस्य सखा विद्वॉ एना सुमतिं यात्यच्छ॥2॥

जो मन से प्रभु को भजते हैं वे क्रमशः आगे  बढते हैं ।
जीवन का आनन्द उठाते बेडा पार किया करते हैं॥2॥

8536
स  नो  देव  देवताते  पवस्व  महे  सोम  प्सरस इन्द्रपानः ।
कृण्वन्नपो वर्षयन्द्यामुतेमामुरोरा नो वरीवस्या पुनानः॥3॥

कर्म-मार्ग का राही ही तो  पाता  है  प्रभु  का  सान्निध्य ।
वह परमात्मा तृप्ति-रूप है मिलता है उसका सामीप्य॥3॥

8537
अजीतयेSहतये    पवस्व    स्वस्तये    सर्वतातये    बृहते ।
तदुशन्ति विश्व इमे सखायस्तदहं वश्मि पवमान सोम॥4॥

प्रभु  परमेश्वर  की  सत्ता  को  जो  भी  करता  है  स्वीकार ।
वह  बडे  भरोसे  से  जीता  है  रहता  है  वह  निर्विकार ॥4॥

8538
सोमः पवते जनिता मतीनां जनिता  दिवो  जनिता  पृथिव्या:।
जनिताग्नेर्जनिता सूर्यस्य जनितेन्द्रस्य जनितोत विष्णोः॥5॥

अति  पावन  है  वह  परमेश्वर  सबको  पावन  वही  बनाता ।
कर्म-योग में जिनकी रुचि है उनको सत्पथ पर ले जाता॥5॥

8539
ब्रह्मा  देवानां  पदवीः कवीनामृषिर्विप्राणां  महिषो  मृगाणाम् ।
श्येनो गृध्राणां स्वधितिर्वनानां सोमः पवित्रमत्येति रेभन्॥6॥

कवि को वह सब दिखता है जो छिपा हुआ है वह रहस्य ।
उसको अपनी थाह नहीं है वह कह देता सहज-सत्य ॥6॥

8540
प्रावीविपद्वाच ऊर्मिं न सिन्धुर्गिरः सोमः पवमानो  मनीषा:।
अन्तःपश्यन्वृजनेमावराण्या तिष्ठति वृषभो गोषु जानन्॥7॥

परमात्मा प्रेरक है मन का वह  ही  है  मन  का  स्वामी ।
हमको  पावन  वही  बनाता  वह   ही  है  अन्तर्यामी॥7॥

8541
स  मत्सरः  पृत्सु  वन्वन्नवातः सहस्त्ररेता अभि वाजमर्षः ।
इन्द्रायेन्दो पवमानो मनीष्यं1शोरूर्मिमीरय गा इषण्यन्॥8॥

परमात्मा आनन्द - रूप  है जो उसको  मन  से  भजता  है ।
अवश्यमेव आनन्द पाता है जो उसका सुमिरन करता है॥8॥

8542
परि  प्रियः  कलशे  देववात  इन्द्राय  सोमो  रण्यो  मदाय ।
सहस्त्रधारःशतवाज इन्दुर्वाजी न सप्तिःसमना जिगाति॥9॥

ज्ञान-मार्ग की महिमा अद्भुत भक्त ज्ञान में रहता लीन । 
भगवान भक्त के बीच  है हल्का सा आवरण महीन ॥9॥ 

8543
स  पूर्व्यो  वसुविज्जायमानो  मृजानो  अप्सु  दुदुहानो  अद्रौ ।
अभिशस्तिपा भुवनस्य राजा विदद् गातुं ब्रह्मणे पूयमानः॥10॥ 

सर्व-व्याप्त  है वह परमात्मा साधक को  देता है सम्मान ।
वह पावन प्रकाश देता है हम सब हैं उसकी सन्तान ॥10॥

8544
त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कर्माणि चक्रुः पवमान धीरा:।
वन्वन्नवातः परिधीँरपोर्णु  वीरेभिरश्वैर्मघवा  भवा नः॥11॥

परमात्मा  की  पूजा  से   ही  मानव  का  बढता  है  ज्ञान ।
अन्वेषण प्रतिभा पलती है देश को मिलता है सम्मान॥11॥

8545
यथापवथा मनवे  वयोधा अमित्रहा  वरिवोविध्दविष्मान् ।
एवा पवस्य द्रविणं दधान इन्द्रे सं तिष्ठ जनयायुधानि॥12॥

आयुध अनन्त अन्वेषण  हो  रक्षित  हो पावन परिवेश ।
जननी-जन्मभूमि प्यारी है सर्वोपरि हो अपना देश॥12॥

8546
पवस्व  सोम  मधुमॉ  ऋतावापो  वसानो  अधि  सानो  अव्ये ।
अव द्रोणानि घृतवान्ति सीद मदिन्तमो मत्सर इन्द्रपानः॥13॥

जिनका  मन  निर्मल  है  ऐसे  मन  में  ही  पलता अनुराग ।
प्रभु सान्निध्य उन्हें मिलता है दूर भाग जाता खटराग॥13॥

8547
वृष्टिं    दिवः  शतधारः   पवस्व   सहत्रसा   वाजयुर्देववीतौ ।
सं सिन्धुभिःकलशे वावशानःसमुस्त्रियाभिःप्रतिरन्न आयुः॥14॥

विज्ञान-ज्ञान अति आवश्यक है तब ही होगा समुचित उत्थान ।
वैज्ञानिक दायित्व निभायें  तब  बहुरेगा  खोया  सम्मान ॥14॥ 

8548
एष स्य सोमो मतिभिः पुनानोSत्यो न वाजी तरतीदरातीः ।
पयो न दुग्धमदितेरिषिरमुर्विव गातुः सुयमो न वोळ्हा॥15॥

ज्ञानी-विज्ञानी  मिल-जुल  कर  स्वाभिमान  के  गायें  गीत ।
रक्षा अभेद्य हो जन्मभूमि की कब बहुरेगा स्वर्णिम अतीत॥15॥

8549
स्वायुधः   सोतृभिः    पूयमानोSभ्यर्ष    गुह्यं    चारु    नाम ।
अभि वाजं सप्तिरिव श्रवस्याSभि वायुमभि गा देव सोम॥16॥

अति रहस्य है और सरल है उस  परमेश्वर  का  क्या  कहना ।
सर्व-शक्ति-सम्पन्न बनें हम सुमिरन  बन  जाए गहना ॥16॥

8550
शिशुं जज्ञानं हर्यतं मृजन्ति  शुम्भन्ति  वह्निं  मरुतो  गणेन ।
कविगीर्भिःकाव्येना कविःसन्त्सोमःपवित्रमत्येति रेभन्॥17॥

सदा प्रकट है वह  परमात्मा  साधक  सब  करते  हैं  चिन्तन ।
कवि कविता की रचना करते अपना-पन पाते हैं सज्जन॥17॥

8551
ऋषिमना  य  ऋषिकृत्स्वर्षा:  सहस्त्रणीथः  पदवीः  कवीनाम् ।
तृतीयं धाम महिषःसिषासन्त्सोमो विराजमनु राजति ष्टुप्॥18॥

परमात्मा  पालक  पोषक  है  सद्गति  भी  वह  ही  देता  है ।
कर्मानुरूप वह फल देता है अपनेपन से अपना लेता है॥18॥

8552
चमूषच्छ्येनःशकुनो विभृत्वा गोविन्दुर्द्रप्स आयुधानि बिभ्रत् ।
अपाभूर्मिं सचमानः समुद्रं  तुरीयं  धाम  महिषो  विवक्ति ॥19॥

जगती  में  अद्भुत  संगति  है  नेम - नियम  से  सब  चलते  हैं ।
प्रभु अनन्त बल का स्वामी है हम सब कर्म किया करते हैं॥19॥

8553
मर्यो न शुभ्रस्तन्वं मृजानोSत्यो न सृत्वा सनये धनानाम् ।
वृषेव यूथा परि कोशमर्षन्कनिक्रदच्चम्वो3रा विवेश ॥20॥

प्रभु हम सबका रखवाला है  रखता  है  हम  सबका  ध्यान ।
रिमझिम बरसात वही देता है हम सब पाते हैं धन-धान॥20॥

8554
पवस्वेन्दो  पवमानो  महोभिः  कनिक्रदत्परि  वाराण्यर्ष ।
क्रीळञ्चम्वो3रा विश पूयमान इन्द्रं ते रसो मदिरो ममत्तु॥21॥

हे  प्रभु  पावन  मुझे  बना  दो  तुम  मेरे  मन  में  बस  जाओ ।
सामीप्य तुम्हारा सुखकर है तुम पर-हित का पाठ पढाओ॥21॥

8555
प्रास्य धारा बृहतीरसृग्रन्नक्तो गोभिः कलशॉ आ विवेश ।
साम कृण्वन्त्सामन्यो विपश्चित्क्रन्दन्नेत्यभि सख्युर्न जामिम्॥22॥

सर्व-व्याप्त वह परमेश्वर ही हमको  देता  है ज्ञान-आलोक ।
प्रभु तुम मेरा हाथ पकड लो भागे मृग सम मेरा शोक॥22॥

8556
अपघ्नन्नेषि  पवमान  शत्रून्प्रियां न जारो अभिगीत  इन्दुः ।
सीदन्वनेषु शकुनो न पत्वा सोमः पुनानः कलशेषु सत्ता॥23॥

परमात्मा  पावन  मन  देता  जीवात्मा  बन  जाती  पावन ।
प्रभु ही संस्कारित करता है खिल जाता है जीवन उपवन॥23॥

8557
आ ते रुचः पवमानस्य सोम योषेव यन्ति सुदुघा: सुधारा: ।
हरिरानीतः  पुरुवारो अप्स्वचिक्रदत्कलशे देवयूनाम् ॥24॥

हे  देदीप्य - मान  परमात्मा  आओ  अंतर्मन  में  आओ । 
एकमात्र तुम ही वरेण्य हो मुझको मेरा ध्येय बताओ ॥24॥            
    

1 comment:

  1. प्रभु परमेश्वर की सत्ता को जो भी करता है स्वीकार ।
    वह बडे भरोसे से जीता है रहता है वह निर्विकार ॥4॥

    परमात्मा के सिवा इस जगत में क्या सुंदर है..

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