Sunday 18 May 2014

सूक्त - 42

[ऋषि- मेध्यातिथि काण्व । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7997
जनयन्रोचना दिवो जनयन्नप्सु सूर्यम् । वसानो गा अपो हरिः॥1॥

परमात्मा  आलोक - प्रदाता  कण - कण  में  वह  बसता  है ।
सूर्य-चन्द्र है छटा उसी की सुखमय संसार यहॉ पलता  है॥1॥

7998
एष प्रत्नेन मन्मना देवो देवेभ्योस्परि । धारया पवते सुतः ॥2॥

वेद - ऋचा  की  महिमा अद्भुत  मन  का  तमस  मिटाती  है ।
वैज्ञानिक अन्वेषण करता यह  दुनियॉ  लाभ उठाती  है ॥2॥

8099
वावृधानाय तूर्वये पवन्ते वाजसातये । सोमा:सहस्त्रपाजसः॥3॥

परमात्मा  प्रेरित  करते  हैं  सन्मार्ग  वही  दिखलाते  हैं ।
उद्यम - फल सबसे मीठा है हम सबको सिखलाते  हैं ॥3॥

8000
दुहानः प्रत्नमित्पयः पवित्रे परि षिच्यते । क्रन्दन्देवॉ अजीजनत्॥4॥

वेद - ऋचाओं से  मिलता  है  मन  की  तृप्ति और सन्तोष ।
कर्म - मार्ग पर चलने  वाला  पाता  है  पावन  परितोष॥4॥

8001
अभि विश्वानि वार्याभि देवॉ ऋतावृधः। सोमः पुनानो अर्षति॥5॥

सबका कल्याण वही करता है वह  करुणा का सागर  है ।
पर उद्योगी सब सुख पाता भर जाता सुख - गागर है ॥5॥

8002
गोमन्नः सोम वीरवदश्वावद्वाजवत्सुतः। पवस्व बृहतीरिषः॥6॥

शौर्य -  धैर्य  देता  परमेश्वर  दुर्जन  को  दण्डित  करता  है ।
वीरों को प्रोत्साहित करता दया - दृष्टि सब पर रखता है॥6॥

No comments:

Post a Comment