Thursday 8 May 2014

सूक्त - 60

[ऋषि- अवत्सार काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री-3 पुर उष्णिक् ।]

8085
प्र गायत्रेण गायत पवमानं विचर्षणिम् । इन्दुं सहस्त्रचक्षसम्॥1॥

शुभ - चिन्तन  हो  पावन - मन  से  कर्म - मार्ग  हो  तेरी  राह ।
कर्म - मार्ग  में  चलो  निरन्तर  करना  नहीं  कोई  परवाह ॥1॥

8086
तं त्वा सहस्त्रचक्षसमथो सहस्त्रभर्णसम् । अति वारमपाविषुः॥2॥

सर्व  समर्थ  वही  परमात्मा  हम  सबका  पोषण  करता  है ।
वह पूजनीय है वह प्रणम्य है हम सबकी विपदा हरता है ॥2॥

8087
अति वारान्पवमानो असिष्यदत्कलशॉ अभि धावति।इन्द्रस्य हार्द्याविशन्॥3॥

ज्ञान  रूप  में  वह  परमात्मा  हम  सबके  भीतर  रहता  है ।
अन्तर्मन पावन हो  तब  ही  वह उस  मन  में  रमता  है॥3॥

8088
इन्द्रस्य  सोम  राधसे  शं पवस्व विचर्षणे । प्रजावद्रेत आ भर॥4॥

हे  प्रभु  कर्म - योग  सिखलाना  कर्म - मार्ग  तक  तुम  पहुँचाना ।
सत्पथ पर हम चलें निरन्तर अज्ञान - तिमिर से मुझे बचाना॥4॥

1 comment:

  1. ज्ञान रूप में वह परमात्मा हम सबके भीतर रहता है ।
    अन्तर्मन पावन हो तब ही वह उस मन में रमता है॥3॥

    साधना का सुंदर सूत्र

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